वीर सावरकर(VEER SWARKAR)-
वीर सावरकर भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी, देशभक्त, बुद्धि में निपुण, भाषाओं के ज्ञानी और वक्ता थे। वीर सावरकर जब अपने भाषण देते तो वह जनता को बांध कर रखते थे। अपने तार्किक बयानों के चलते सावरकर हर किसी के ह्रदय में बसते थे। उस दौर में सावरकर अपनी राजनैतिक विचारधारा के चलते लोकप्रिय हुए। देश में हिंदुत्व की भावना जगाने में वीर सावरकर की अहम भूमिका रही है। क्योंकि सावरकर का उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र बनाना और सनातन को बढ़ावा देना था।
वीर सावरकर ने 1857 में पहली बार ब्रिटिश सरकार को हिला दिया। उन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पहला सनसनीखेज खुलासा किया और अंग्रेजी शासन हिल गया। सावरकर का मानना था कि भारत सिर्फ हिन्दू राष्ट्र होना चाहिए। भारत सिर्फ हिन्दू राष्ट्र होना चाहिए। भारत में अलग-अलग धर्म और जाति के लोग रहते हैं। लेकिन भारत की पहचान सिर्फ हिन्दू राष्ट्र के रूप में होनी चाहिए। हिन्दू ही भारत की पहचान है।
VEER SWARKAR निजी जीवन-
वीर सावरकर का पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर(vinayak Damodar savarkar) है। उनका जन्म 28 मई 1883 में भागुर जिला नासिक बम्बई प्रेसिडेंट ब्रिटिश भारत में हुआ था। उनके पिता का नाम दामोदर पंत सावरकर और माता का नाम राधाबाई था। सावरकर की उम्र महज 9 वर्ष थी तभी उनकी माता का देहांत हो गया। माता के देहांत के सात साल बाद प्लेग बीमारी से पीड़ित उनके पिता का देहांत 1899 में हो गया।
अंग्रेजी सत्ता के समय से सावरकर की पहचान महान स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, कवि, उत्तम वक्ता, बुद्धिमान राजनेता और हिन्दू राष्ट्र प्रिय व्यक्ति के रूप में बनी हुई है। सावरकर के दो भाई और एक बड़ी बहन थी। सावरकर का जीवन बेहद कठिन संघर्ष से व्यतीत हुआ। साल 1901 में वीर सावरकर का विवाह यमुनाबाई के साथ हुआ था।
8 नवंबर 1963 में इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीन सितंबर, 1966 से उन्हें तेज ज्वर ने आओरा, जिसके बाद उनका स्वास्थ्य गिरने लगा था। 1 फरवरी 1966 को उन्होंने गर्भप्रर्यन्त उपवास करना निर्णय लिया था। 26 फरवरी 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः 10 बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम प्रस्थान किया। उनकी अंतिम यात्रा पर 2000 आरएसएस के सदस्यों ने उन्हें अंतिम विदाई दी थी और उनके सम्मान में “गार्ड ऑफ़ हॉनर” भी किया था।
वीर सावरकर(VEER SWARKAR) शिक्षा-
वीर सावरकर ने शिवजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। पढ़ाई के दौरान उन्होंने कई कविताएं लिखी। वीर सावरकर की आर्थिक स्थिति बेहद खराब थी।
बाबा राव में विकट परिस्थितियों में वीर सावरकर की उच्च शिक्षा में मदद की। 1902 में वीर सावरकर ने पुणे के फगयर्सन कॉलेज में दाखिला लिया। यहां वीर सावरकर को बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय से प्रेरणा मिली।
यह छात्रवृत्ति प्राप्त कर बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए लंदन गए। इन्होंने फ़्री इंडिया सोसायटी की स्थापना की थी। इस दौरान यह लोगों को देश के प्रति समर्पित होने का भाषण देते थे। अपने लंदन प्रवास के दौरान उन्होंने द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस में 1857 का लेख लिखा और इसको स्वतंत्रता संग्राम बताया।
1909 में उन्होंने वकालत की पढ़ाई राजधानी लंदन की बार एट ला की परीक्षा उत्तीर्ण की। लेकिन इसके बाद भी इनको वकालत की अनुमति नहीं मिल सकी।
VEER SWARKAR क्रांतिकारी जीवन-
फ़र्ग्युसन कॉलेज पुणे में पढ़ने के दौरान भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। वीर सावरकर की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनसे, उनकी स्नातक स्तर की डिग्री वापस ले ली। जून 1906 में, वीर सावरकर वकील बनने के लिए लंदन चले गए। जब वे विलायत में क़ानून की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, तभी 1910 ई. में एक हत्याकांड में सहयोग देने के रूप में एक जहाज़ द्वारा भारत रवाना कर दिये गये।
परन्तु फ़्रांस के मार्सलीज़ बन्दरगाह के समीप जहाज़ से वे समुद्र में कूदकर भाग निकले, किन्तु पुनः पकड़े गये और भारत लाये गये। भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्षों में वीर सावरकर का नाम बेहद महत्त्वपूर्ण रहा है। महान देशभक्त और क्रांतिकारी सावरकर ने अपना संपूर्ण जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। अपने राष्ट्रवादी विचारों से जहाँ सावरकर देश को स्वतंत्र कराने के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहे वहीं दूसरी ओर देश की स्वतंत्रता के बाद भी उनका जीवन संघर्षों से घिरा रहा।
क्रांतिकारी समूह इंडिया हाउस के साथ उनके संबंध होने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। एक विशेष न्यायालय द्वारा उनके अभियोग की सुनवाई हुई और उन्हें आजीवन कालेपानी की दुहरी सज़ा मिली। सावरकर 1911 से 1921 तक अंडमान जेल (सेल्यूलर जेल) में रहे। 1921 में वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी।
सेल्यूलर जेल स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था।
1940 ई. में वीर सावरकर ने पूना में ‘अभिनव भारती’ नामक एक ऐसे क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य आवश्यकता पड़ने पर बल-प्रयोग द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करना था। आज़ादी के वास्ते काम करने के लिए उन्होंने एक गुप्त सोसायटी बनाई थी, जो ‘मित्र मेला’ के नाम से जानी गई।
सावरकर भारत को एक हिंदु राष्ट्र बनाना चाहते थे लेकिन बाद में उन्होंने 1942 में भारत छोडो आन्दोलन में अपने साथियो का साथ दिया और वे भी इस आन्दोलन में शामिल हो गये। 1947 में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा रामचन्द्र वीर (हिन्दू महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया। बाद में सावरकर ने काफी यात्रा की और वे एक अच्छे लेखक भी बने, अपने लेखो के माध्यम से वे लोगो में हिंदु धर्म और हिंदु एकता के ज्ञान को बढ़ाने का काम करते थे। सावरकर ने हिंदु महासभा के अध्यक्ष के पद पर रहते हुए भी सेवा की है, उस समय वे भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के उग्र आलोचक बने थे और उन्होंने कांग्रेस द्वारा भारत विभाजन के विषय में लिये गये निर्णय की काफी आलोचना भी की। उन्हें भारतीय नेता मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या का दोषी भी ठहराया गया था लेकिन बाद में कोर्ट ने उन्हें निर्दोष पाया।
सावरकर एक प्रख्यात समाज सुधारक थे। उनका दृढ़ विश्वास था, कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार बराबरी का महत्त्व रखते हैं व एक दूसरे के पूरक हैं। उनके समय में समाज बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के बंधनों में जकड़ा हुआ था। इस कारण हिन्दू समाज बहुत ही दुर्बल हो गया था। अपने भाषणों, लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर प्रयास किए। हालांकि यह भी सत्य है, कि सावरकर ने सामाजिक कार्यों में तब ध्यान लगाया, जब उन्हें राजनीतिक कलापों से निषेध कर दिया गया था। किंतु उनका समाज सुधार जीवन पर्यन्त चला। उनके सामाजिक उत्थान कार्यक्रम ना केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि राष्ट्र को समर्पित होते थे। 1924 से 1937 का समय इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा।
वीर सावरकर(VEER SWARKAR) की लेखनी-
- द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस – 1857
- हिंदुत्व – हू इज हिंदू?
- काला पानी
- हिन्दू राष्ट्र दर्शन
- द ट्रांसपोर्टेशन ऑफ माई लाइफ
- हिन्दू पद-पादशाही
- हिन्दू राष्ट्र दर्शन
गाँधीजी से सदैव रहा था विवाद-
हिंदुत्व के कट्टर समर्थक एवं देश के प्रमुख क्रांतिकारियों में शुमार देशभक्त वीर सावरकर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के कटु आलोचक थे। गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन को शामिल करने का इन्होने पुरजोर विरोध किया था और इस आंदोलन को किसी भी प्रकार का समर्थन देने के इंकार कर दिया था। साथ ही गांधीजी द्वारा समय-समय पर चलाये गए विभिन महत्वपूर्ण आंदोलनों का भी इन्होने कड़ा विरोध किया था। गाँधीजी को इन्होने अपने अनेक लेखों में पाखंडी एवं अपरिपक्व नेता भी कहा था। भारत के विभाजन का वीर सावरकर द्वारा पुरजोर विरोध किया गया था एवं गाँधीजी के विचारो एवं कार्यो को ये अपने लेखों के माध्यम से क्रिटिसाइज करते रहते थे। हालांकि गाँधीजी वीर सावरकर को एक योग्य एवं कुशल नेता मानते थे एवं विभिन मौकों पर गांधीजी द्वारा वीर सावरकर की प्रशंसा भी की गयी थी। वर्ष 1948 में गाँधीजी की हत्या होने के पश्चात इन्हे भी गाँधीजी की हत्या में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था परन्तु बाद में इनके विरुद्ध कोई भी अपराध सिद्ध ना होने के कारण सरकार द्वारा वीर सावरकर से माफ़ी मांगी गयी थी। 26 फरवरी 1966 को भारत माँ का यह सपूत चिरनिद्रा में विलीन हो गया जिसके पश्चात इनके जन्मदिवस 28 मई को वीर सावरकर जयंती मनाई जाती है।
वीर सावरकर(VEER SWARKAR) कालापानी की सजा –
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत के पूर्वी भाग में स्थित अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह पर स्थिति कुख्यात पोर्ट ब्लेयर की सेलुलर जेल को अंग्रेजो द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को कठोरतम सजा देने के लिए बनाया गया था। द्वीप पर स्थिति इस जेल में कैदियों पर विभिन प्रकार के अमानुषिक अत्याचार किए जाते थे जिसमे कैदियों को काल-कोठरी में बंद करना, कोल्हू में कैदियों को जोतना, नारियल से तेल निकलवाना एवं भरपेट भोजन ना देना शामिल था। साथ ही छोटी-छोटी गलतियों पर कैदियों पर कोड़े भी बरसाए जाते थे। इसी कारण से इस कुख्यात जेल को कालापानी की सजा भी कहा जाता था। वीर सावरकर को मुक़दमे की सुनवाई के पश्चात कालापानी जेल में भेज दिया गया था।
कालापानी की सजा के दौरान ही वीर सावरकर यह समझ चुके थे की कालापानी में रहने से उनका पूरा जीवन कैदियों की भांति ही खत्म हो जायेगा एवं वे देश के स्वतंत्रता संग्राम में किसी भी प्रकार की सक्रिय भूमिका नहीं निभा सकेंगे। यही कारण रहा की देश के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने एवं अपना योगदान देने के लिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफ़ीनामा माँगना ही बेहतर समझा। इसके लिए इन्होने ब्रिटिश सरकार से कुल 6 बार माफीनामे की अर्जी दी जिसकी वकालत बाल गंगाधर तिलक एवं सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की। वर्ष 1924 में ब्रिटिश सरकार ने सावरकर के माफीनामे को स्वीकार करके इन्हे रिहा कर दिया। सावरकर के माफीनामे को लेकर उनके विरोधी उन पर निशाना साधते रहते है परन्तु समर्थक वीर सावरकर द्वारा मातृभूमि की सेवा के लिए माफीनामे माँगने को उचित ठहराते है।